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Muffin Cake – Hindi Short Story |
(दृश्य : वृद्धाआश्रम)
एक ४०-४५ साल का व्यक्ति इरला वृद्धाश्रम में मफ़िन (केक) बाँट रहा है। इस व्यक्ति को देखकर सभी बूढ़ी औरतों की आँखों में एक हल्की सी चमक आ गई है। वह एक एक कर सभी के पलंग के पास जा रहा है। एक के बाद एक, ‘थेंक यू, गॉड ब्लेस यू’ कहती हुई वो बूढ़ी औरतें उसके सिर पर हाथ रखकर उसे दुआएँ दे रही है। सभी औरतें अपना केक खाकर बचा हुआ काग़ज़ बग़ल की टेबल पर रख चुकी हैं लेकिन मिस डेज़ी ने अब भी वह केक नहीं खाया है। वह उस केक के ऊपर एक बर्तन उठाकर रख देती हैं। उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान है और वह बाहर दरवाज़े की ओर पता नहीं किसकी राह देख रही हैं। वहाँ काम करने वाली एक बाई सभी का कचरा उठाते हुए पास आती है।
“आँटी, आपका काग़ज़ कहाँ है?”
डेज़ी आँटी हाथ के इशारे से मना कर देती है।
“आपको नहीं मिला क्या केक?
डेज़ी आँटी सिर हिलाते हुए हाँ करती हैं, लेकिन “बाद में खाऊँगी” कहकर उस बाई को वहाँ से चलता करती है, और फिर बाहर दरवाज़े की तरफ़ देखने लगती है।
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(दृश्य : शालिनी का घर)
“शालिनी… मेरी ऑफ़िस की फ़ाइल कहाँ है?”
अंदर से आवाज़ आती है।
“वहीं टेबल पर है…”
प्रकाश की नज़र डाइनिंग टेबल पर जाती है, जहाँ भूरे रंग की एक फ़ाइल रखी हुई है।
“अच्छा, मेरा टिफ़िन दो, पहले से ऑफ़िस के लिए लेट हो चुका हूँ।”
“हाँ अभी लाई…”
अंदर से शालिनी हाथ में टिफ़िन लेकर आती है और प्रकाश को देती है। अपने सिर का पसीना पोंछते हुए वो बग़ल के सोफ़े पर बैठ गई। प्रकाश अपना टिफ़िन बेग में डालते हुए कहने लगा।
“आज ४ बजे तुम मिस रमा के यहाँ चली जाना, वो लोग किसी प्रोग्राम का प्लान कर रहे हैं।”
पंखे के नीचे बैठी शालिनी थोड़ी थकी आवाज़ में कहती है –
“नहीं, नहीं… शाम को तो नहीं हो पाएगा, आज मुझे ‘इरला’ जाना है।”
प्रकाश सामने की दीवार पर लगे मंदिर के सामने आँखें बंद कर – हाथ जोड़ते हुए कहता है,
“आख़िर तुम वहाँ जाना कब बंद करोगी। वो हमारे धर्म के लोग नहीं हैं।”
आँख खोलकर वो टेबल पर रखी टाई उठाता है। शालिनी अपनी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरे पर हवा मारने की कोशिश कर रही है।
“उनकी तो मिठाइयों में भी अंडा होता है।”
टाई पहनते हुए वो शालिनी की ओर मुड़ता है।
“ठीक है तुम्हें उनसे सहानुभूति है लेकिन, रोज़ – रोज़ क्या जाना, कई लोग हैं वहाँ….”
शालिनी उठकर प्रकाश की टाई ठीक करती है,
“वहाँ लोग हैं उनकी देखभाल के लिए, लेकिन उनका अपना कोई नहीं”, प्रकाश उसे नाराज़गी से घूर रहा है, “और वो अपनी बेटी मानती हैं मुझे।”
प्रकाश अपना बैग उठाते हुए कहता है,
“सच में उनकी बेटी मत बन जाना, क्रिस्चन हैं वो, समझ में आया।”
शालिनी सिर हिलाकर बस हामी भर देती है।
“और हाँ… रोमा के यहाँ हो आना।”
इतना खकर प्रकाश घर से बाहर चला जाता है। रमा बस दरवाज़े की ओर देखती रह जाती है।
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(दृश्य : वृद्धाश्रम)
काम वाली बाई साफ़ – सफ़ाई करते हुए बर्तन उठाती है, “अरे, आँटी… क्या तुम भी… अभी तक नहीं खाया ये केक आपने।”
आँटी थोड़ी निराशा के साथ कहती है, “ये केक मेरी बेटी के लिए रखा है मैंने। जब भी आती है कुछ ना कुछ लेकर आती है मेरे लिए। मैं भी उसे कुछ देनी चाहती हूँ।” काम वाली बाई उनकी तरफ़ सहानुभूति से देख रही है। “शायद आएगी आज वो, पता नहीं क्यूँ नहीं आई दो दिन से।”
बाई वहाँ से चली जाती है। आँटी उस बर्तन में रखे मफ़िन की ओर देखती है और धीरे से अपने पलंग पर लेट जाती है।
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(दृश्य : वृद्धाश्रम)
शाम के चार बजे हैं। शालिनी इरला आश्रम का छोटा सा गेट खोलकर अंदर चली जाती है। वहीं कमरे के दरवाजें के पास कामवाली बाई बैठी हुई है जो शालिनी का हाथ जोड़कर अभिवादन करती है। शालिनी भी उसे हँसी में प्रतिउत्तर देते हुए डेज़ी आँटी के पलंग की ओर बढ़ जाती है। शालिनी को आता देख डेज़ी आँटी खिल खिला उठती हैं और पलंग पर उठ बैठती हैं।
“कहाँ रह गई थी तू दो दिन?” शालिनी उनकी तरफ़ हल्की सी मुस्कान लिए देख रही है, “कितना मिस किया तेरे को मैंने।”
“सॉरी आँटी घर में काम कुछ आ गया था तो…”
दोनों के बीच कुछ देर तक बातें होती है। शालिनी आँटी का चेहरा तो सूरजमुखी के फूल की तरह खिल गया। दोनों में हँसी ठहाकों के साथ बातें होने लगी। अचानक किसी बात को काटते हुए डेज़ी आँटी ने कहा –
“… वो सब छोड़, देख मैंने तेरे लिए कुछ रखा है।” डेज़ी आँटी उस धनके हुए बर्तन की ओर हाथ बढ़ाती हैं।
शालिनी भी उस तरफ़ ग़ौर से देखते हुए कहती है, “मेरे लिए… क्या?”
डेज़ी आँटी वो बर्तन हटा कर दोनों हाथ से केक लेकर शालिनी के सामने रख देती है। शालिनी उस केक को लेने से कतराती है।
“आँटी… ये मैं कैसे ले सकती हूँ।”
डेज़ी आँटी बीच से ही बात काट देती है, “मेरा अपना इस दुनिया में अब कोई नहीं… जो हैं वो कभी आते नहीं।” उनकी आँखों में आसूँ हैं।
शालिनी कुछ कहना चाहती है, “ पर आँटी…” लेकिन आँटी शालिनी का हाथ पकड़कर कहती है। “मैं कुछ देना चाहती थी तुझे, मेरे पास इसके अलावा तुझे देने के लिए और कुछ भी नहीं है।”
बाई भी ये सब होते हुए देख रही है। शालिनी भी पूरी तरह भावूक हो जाती है। उसकी भी आँखों में आँसू आ जाते हैं। वो डेज़ी आँटी के आँसू पोंछती है और भावूक अवस्था में केक लेकर आश्रम के बाहर आ जाती है। आश्रम का गेट खोलकर शालिनी रास्ते पर बाहर खड़ी है और मफ़िन केक को देख रही है।
– समाप्त –